मैं खुद भी उसकी इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखता था....और पूरी तरह से आज भी नहीं रखता हूं...पर कड़वी सच्चाई ये है कि बहुत से न्यायिक
खासकर अपराधिक प्रकरणों में तो जाने कितनी जिंदगियां दांव पर लगी होती हैं....उसके बावजूद पुलिस सिस्टम की खामियों, नाकाबिल अभियोजन(फरियादी पक्ष के लिए सरकार द्वारा नियुक्त सरकारी वकील), बाबा आदम के जमाने का इन्वेस्टीगेशन सिस्टम और डंडा चलाने वाले पुलिसियों द्वारा हद दर्जे का लापरवाहीपूर्ण और बेवकूफाना साथ ही हरे-हरे नोटों की लीक पर चलने वाला इन्वेस्टीगेशन इत्यादि मिलाकर ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देते हैं कि ऐसे प्रकरणों में तो जो पक्षकार इन परिस्थितियों को जितना अपने काबू में कर ले उतना उसकी किस्मत चमकने की संभावना बन जाती है....बाकी जज की कलम भरोसे....जो पक्षकार जितना पैसा खर्च कर गवाहों, सरकारी वकील, पुलिस को जितना प्रभावित कर पाये उसके लिए चांसेज उतने ही ब्राइट हो लेते हैं और अक्सर वे इसका फायदा उठा ले जाते हैं....
एक वरिष्ठ अभिभाषक महोदय एक दिन कह रहे थे कि जिस देश में चपरासी से लेकर सबसे ऊंचे पायदान पर बैठे व्यक्ति के ईमान का कोई भरोसा नहीं, वहां न्याय को नौटंकी की उपमा देना कतई गलत नहीं है...
इस वकालत के पेशे का एक पहलू ये भी है कि इस नाटक के पात्रों को भी इस पेशे में अपना अस्तित्व बचाये रखने और अपने पक्षकारों के हितों के संरक्षण के लिए कई बार संवेदनाओं से किनारा करना पड़ता है और कई बार समझौते भी करने पड़ते हैं पर फिर भी कुछ एथिक्स हमें इस पेशे में जिंदा रहने और लंबे समय तक टिके रहने के लिए तय करने होते हैं जो इस न्याय-प्रक्रिया और न्यायार्थियों दोनों के लिए ही हितकर साबित होते हैं और जो प्रोफेशनल्स इनकी अनदेखी करते हैं वे कुछ समय तक ही अपनी चमक बिखेरकर विलुप्त हो जाते हैं...
पर इतना तो मान ही लेते हैं कि कुछ मजबूरियों के बावजूद इस नाटक के बहुत-से पात्र खुद इस तरह से लगते हैं कि वे इस नाटक से बावस्ता होते हुए भी वास्तविकता के धरातल पर कुछ यूं नजर आते हैं और उम्मीद की कुछ रोशनी हमारी आंखों तक पहुंच ही जाती है...
बाकी बड़ी-बड़ी बातें करने का यहां कोई मतलब नहीं है बस दुष्यंत कुमार का एक शेर काबिले-गौर है-
तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक न कर,
तू इस मशीन का पुर्जा है, तू मशीन नहीं।